Saturday, June 14, 2014

तारिका


रामायण की ऐक पात्र ताड़का को एक नये दृष्टिकोण से देखने का एक प्रयत्न.
तारिका


पहला दृष्य
स्थान यक्षनगरी का राजभवन- युवराज रानी तारिका का शयनकक्ष . कक्ष की दीवारों व छत पर सुन्दर चित्रकारी करी हुई है.  कुछ, पूर्व राजा रानियों और देवी देवताओं के कलाकारों द्वारा बनाए गये, चित्र लगे हुए कक्ष की शोभा बढ़ा रहे हैं. एक तरफ युवराज अग्निदत्त का पूर्ण चित्र लगा है. पूर्व दिशा मे एक बड़ी सी खिड़की है. उत्तर दिशा मे शैया बिछी है, और दक्षिणी भाग मे तरह तरह के वाद्य यंत्र, यथा वीणा, मृदंग, व जलतरंग सजे हैं. युवराज रानी  तारिका अपनी शैया पर तकिये के सहारे कलाकारों द्वारा प्रस्तुत संगीत का रसास्वादन कर रही हैं. पास ही कुछ सहेलियां बैठी हुई हैं. एक चंवंर डुला रही है. दो दासियां सैनिक वस्त्र पहने हुए हाथों मे कृपाण धारण किये हुए पहरा दे रही हैं।
  युवराज रानी  तारिका की वय बीस –इक्कीस वर्ष के मध्य होगी. नवविकसित यौवन की एक मादक आभा उनके आनन पर छायी हुइ, अपनी महक फैला रही है. खंजंन पक्षी के समान उनके सुंदर नैत्र मृगनयनो के समान चंचल होरहे हैं, उनके ऊपर सीमा सी बनाती हुई धनुषाकार भृकुटियां अपनी अनोखी छटा बिखेर रही हैं. पतले पतले रक्तिम मधुर अधर, अरुणिम कपोल, चमकती हुई श्वेत दन्त पंक्तियां, एवं श्याम,घन सर्प के समान लहराती हुइ विशाल केश राशि पतली कटि, सुडौल बाहु और जंघाएं, लगता है ब्रह्मा ने बड़ी धीरता से उसे अपने हाथों से गढ़ा हो। तारिका अपनी अन्यतम सखी रजनी से वार्तालाप मे खोयी हुई है.
सखे मन आज कुछ उदास सा है. न जाने किस अनहोनी आशंका से हृदय कांप रहा है. भगवान भास्कर अपनी किरणों को समेटते हुए अस्ताचल जाने को तत्पर हैं किन्तु आर्य अभी तक नही आये
देवी, आज यक्ष देव कुबेर का पूजन पर्व है, संभवतः युवराज आखेट मे विलम्ब हो जाने के कारण सीधे मंदिर चले गये होंगे रजनी ने सांतवना दी.
नही रजनी यह संभव नही है. आर्य मृग्या से लौटकर एकबार यहां अवश्य आएंगे, तत्पश्चात ही मंदिर जाएंगे. आर्य ने स्वंम यह वचन दिया है, और वह वचन कभी भंग नही करते. आज मेरा हृदय कुछ अधिक ही व्याकुल हो रहा है.
प्रिय की प्रतीक्षा की घड़ियां बड़ी लम्बी प्रतीत होती हैं सखी, थोड़ा सा भी विलंब अनेको शंकाऐं उत्पन्न कर देता है.  जो हमे जितना अधिक प्रिय होता है, उसके मंगल के लिये हम उतना ही अधिक शंकित होते हैं। देवी आप निशंक रहिये युवराज सकुशल आते ही होंगे।
नही रजनी, मै वृथा चिंतित नही हो रही हूं. आज प्रातः से ही अनेको अपशकुन हो रहे हैं. अमंगल की आशंका से मृगया को प्रस्थान करते समय आर्य से आज न जाने की प्रार्थना की तो वह बोले कि पगली शकुन-अपशकुन का विचार भी करना कायरता है, नक्षत्रों की गति वीरों के भाग्य का निर्णय नही करती, न हाथ की रेखाऐं. उसका निर्णय उनकी भुजाओं का बल करता है
सौन्दर्य स्वाभाविक रूप से भीरू होता है देवी, इसमे आपका नही आपके अतुल्य सौन्दर्य का दोष है. रजनी ने सान्त्वना देने का प्रयास किया.
भूलती हो रजनी.  तारिका कुछ उत्तेजित हो गयी. वास्तविक सौन्दर्य वीरता से ही खिलता है भीरुता से नही, शौर्यहीन सौन्दर्य गंधहीन पुष्प के समान है. तेज एवं शौर्य ही सौन्दर्य का अलंकार हैं सखी, भूल गयीं क्या कि हिमगिरी के अंचल के भीषण अरण्य मे केवल एक खड़ग से सिहं का आखेट करने वाली तारिका भीरू नही होसकती. कितुं आज न जाने क्यों  हृदय दुर्बल होरहा है, किसी अंजान अनिष्ट की आशंका से त्रस्त है. जीवन मे पहली बार हृदय व्याकुल होरहा है.
मेरे विचार से आपकी आशंका निर्मूल है देवी, आज युवराज अरण्य की ओर न जाकर अगस्तय मुनि के आश्रम की ओर गये हैं. सुना है कुछ दुष्ट दस्यु वहां कुछ उत्पात कर रहे हैं, ऋषि मुनियों के यज्ञों का विध्वंस कर रहे हैं. उनको निर्मूल कर क्षेत्र को धर्मरक्षित करने के लिये ही महाराज ने युवराज को भेजा है।
ज्ञांत है सखी और आर्य के बाहुबल पर भी पूर्ण विश्वास है, किंतु हृदय की इस दुर्बलता का क्या करूं जो कम ही नही होती. ------ अच्छा रजनी वीणा पर अपना वह पुराना राग सुनाओ   बज उठे तार इस मन के ---कितनी शक्ति है, कितना कौशल है तुम्हारी इन कोमल अंगुलियों मे, जो निर्जीव तारों मे भी एक अनोखा जीवन स्पन्दित कर देती हैं, उदास हृदयों मे भी एक नवीन उत्साह भर देती हैं
देवी, मेरी वीणा तो आपकी मधुर वाणी के सन्मुख निर्जीव पड़ जाती है.  कहां आपकी स्वर्गिक मधुर वाणी, कहां मेरी वीणा का निर्जीव रोदन? ”
नही रजनी, आज नही, आज मै स्वर साधना नही कर पाऊंगी, साधना के लिये एकाग्रता आवश्यक है और आज यह चंचल, आशंकित हृदय एकाग्र नही हो पायेगा. एकाग्रहीन हृदय से साधना कला का अपमान है, आज तुम्हे ही अपने कोमल स्वरों से अपनी वीणा के तारों का सामन्जस्य करना पड़ेगा
             रजनी ने कुछ विरोध किया पर तारिका की भृकुटि देख संगीत आरंभ करदिया.
बज उठे तार जीवन के
बज उठे, बज उठे, बज उठे,
बज उठे तार जीवन के
प्रेम चितवन से निहारा
सज गया संसार सारा
चन्द्र उगते ही गगन से
मिट गया अंधकार सारा
खुल गये द्वार मन के,
बज उठे तार जीवन के।
बज उठे, बज उठे, बज उठे जीवन के ।।

    कुछ समय ही बीता था कि एक दासी ने हड़बड़ाते हुए, लगभग चिल्लाते हुए प्रवेश किया  बज्रपात होगया देवी बज्रपात
तारिका से पहले ही रजनी ने दासी को पकड़कर झझकोर दिया, इतनी घबरायी हुई क्यों हो रजंना? शीघ्र बताओ क्या होगया? ऐसी कौन सी घटना होगयी कि तुम्हारा रंग उड़ा हुआ है ?”
तारिका का चेहरा पीला पड़ गया, मुह से बोल नही निकल रहे थे, पर रंजना को यह सब देखने का होश ही कहां था. बदहवास सी हो बोल पड़ी
युवराज को प्राणदंड दे दिया महाराज ने, प्रजा पर तो विद्युतपात होगया है देवी. पूरा नगर सभास्थल पर एकत्रित हो गया है
एक पल को तो तारिका बिल्कुल संज्ञा हीन सी होगयी. जब तक रजनी व अन्य सखियां और दासियां दौड़कर वहां आ पातीं, तारिका मे कुछ नियंत्रित होते हुए  प्रश्न किया,
अचानक बिना किसी पूर्व सूचना के महाराज ने इतना क्रूर निर्णय, अपने ही पुत्र के विरुद्ध, इतनी शीघ्रता से? समझ मे आने वाली बात नही है रंजना, ज़रा विस्तार से बताओ क्या घटना घटी है? ”
  महर्षि अगस्तय आये थे न्याय मांगने. महाराज सभा विसर्जित ही करने वाले थे कि महर्षि वहां पहुंच गये, युवराज पर ब्रह्म हत्या का आरोप लगाया था. युवराज ने अपना अपराध स्वीकार भी कर लिया. महाराज के पास अब यह दंड घोषित करने के स्थान पर अन्य कोई विकल्प नही बचा था. आपका अंतिम दर्शन करने की युवराज की अंतिम इच्छा भी ठुकरा दी गयी. आज ही रात्रि के यज्ञ मे अजाबलि के स्थान पर युवराज की ही बलि होगी
यह कैसा न्याय है?” क्रोध से तारिका के नेत्रों से ज्वाला सी निकले लगी “बिना घटना की निशपक्ष जांच करने व किन परिस्थितियों मे मृत्यु हुइ है, मात्र ऋषि के आरोप और युवराज की आत्म स्वीकृति के इतना कठोर दंड? क्या इस घटा का पूरा विवरण ज्ञात है? यदि यह मृत्यु अन्जाने मे हुइ है तो यह न्यायोचित नही है, अन्याय है.  मै इस निर्णय का विरोध करूंगी. रजनी सभा मे चलने की तैयारी करो. हम महाराज से वहीं न्याय की मांग करेंगे।
 रंजना को राज सभा से जो जो सूचनाऐं मिलीं थीं वो सभी विस्तारपूर्वक उसने सुना दीं। अभी तारिका व रजनी ने पग बढाये ही थे कि एक अन्य दासी लगभग दौड़ती हुइ आयी  सभी लोग सभा से उठकर यज्ञस्थल की ओर गये हैं देवी, युवराज की बलि की तैयारी है, कुछ ही समय मे यज्ञ प्ररंभ होनेवाला है.
 “लेकिन देवी, हम अब यज्ञस्थली कैसे जा सकेंगे? जिस यज्ञ मे नरबलि का प्रावधान हो वहां नारी का प्रवेश वर्जित है. रजनी के बढ़ते हुए पग रुक गये.
जिस समाज ने मेरे सौभाग्य के साथ कोई भी दया नही दिखाई, उसकी किसी भी वर्जना के पालन के लिये मै बाध्य नही हूं. मै इस राज्य की ऐसी किसी भी परम्परा या नियम को नही मान सकती। प्रहरी अश्व तैयार करो।
यदि देवी का यही निर्णय है तो यह दासी भी आपके साथ अवश्य जाएगी, चंद्रिका के साथ ज्योत्सना का और तारिका का रजनी के साथ अटूट संबंध है.
दोनो शीघ्ता से मुख्य द्वार से राजप्रसाद के बाहर निकल जाती हैं. नैपथ्य मे अश्व टाप की आवाज सुनाई देती है जो क्रमशः दूर होती जाती है।














द्वितीय दृष्य

राजकीय यज्ञस्थल का विशाल प्रांगण प्रज्लवित दीपों के प्रकाश से आलोकित है. राज्य के प्रमुख प्रमुख प्रतिनिधी व अन्य गणमान्य नागरिक अपने अपने स्थान पर आसीन हैं. अवसर की महत्ता व गंभीरता को देखते हुए साधारण जन भी भारी संखया मे उपस्थित हैं.  यज्ञकुंड के समीप प्रमुख होता के स्थान पर रत्न जड़ित आसन पर बेबस उदास से यक्षराज आसीन हैं. हवनसामग्री समीप ही रखी है. ऋषी गण अपने अपने मृगासनो पर आसीन मंत्रोचार कर रहे हैं. यज्ञ प्रारंभ करे की तैयारी चल रही हैं.  मुख्य पुरोहित के आसन पर महर्षि अगस्तय विराजमान हैं, उनका आनन ज्ञान व तप के तेज से दीप्तिमान हो रहा है. पास ही एक बलिवेदी के यज्ञस्तम्भ से युवराज अग्निदत्त बंधे हुऐ है. समीप ही हाथमे नग्न खड़ग लिये मुख्य बलिकर्ता खड़ा हुआ है.  सारा समुदाय स्तब्ध सा निश्चल मौन बैठा मंत्रोचार समाप्त होने पर बली होने की प्रतीक्षा कर रहा है।
मंत्रपाठ समाप्त होते ही महर्षि के संकेत करते ही बलिकर्ता का खड़ग विद्युतगति से युवराज की  झुकी हुई गर्दन पर पड़ता है और शीश छिटक कर दूर जा गिरता है. यज्ञ स्थल व बलिवेदी रक्तरंजित होजाती है.  शीशविहीन कबंध कुछ पल तड़प कर निश्चल होजाता है. बलिकर्ता मुनि शव को उठाने को झुकता ही है कि नैपथ्य से प्रहरी की तीव्र आवाज़ आती है.ठहरिये राजकुमारी आप कहाँ जारही हैं? नारी का प्रवेश बलियज्ञ मे वर्जित है। आप यज्ञशाला मे प्रवेश नही कर सकतीं.
रुक जाओ मुनिवर, युवराज का स्पर्श न करो” तारिका नग्न खड़ग घुमाती हुए, प्रहरी को लगभग ढकेलती हुए वहां प्रवेश कर जाती है। पीछे पीछे छाया का तरह, तारिका को रक्षित करती हुई एवं खड़ग लिये हुए रजनी भी आ जाती है. जबतक उपस्थित लोग कुछ समझें तारिका अग्निदत्त की रक्तरंजित शीश विहीन देह उठा लेती है. बहता हुआ रक्त उसके वस्त्रों को लाल करदेता है, रजनी अग्निदत्त का कटा हुआ शीश उठा  लेती है. दोनो उसी अवस्था मे प्रागंण के मध्य खड़ी होजाती हैं। सारे सभासद,  श्रषि-मुनि गण, नागरिक और यहां तक कि  महाराज एवं महर्षि अगस्तय भी जड़वत स्तंभित रह, बैठे रह जाते हैं।
मै महाराज और महर्षि से न्याय की मांग करती हूं तारिका भावावेष मे कांप रही थी, उसके कपोलो पर अविरल अश्रु बह रहे थे. युवराज ने ऐसा कौन सा अपराध किया था? मेरा क्या अपराध था कि मुझे इस यौवन मे ही विधवा बनने का दंड दिया जारहा है? मेरा सौभाग्य मुझसे छीन लिया गया है? मेरा सर्वस्व लूट लिया गया है? ”
हमारा, हम सबका दुर्भाग्य है पुत्री कि हमे यह दिन देखना पड़ रहा है. इससे बड़ी क्या विडम्बना होगी कि वृद्द पिता के सामने युवा पुत्र की मृत्यु हो, वह भी उसी के निर्णय से? पर न्याय की रक्षा के लिये ही इस वृद्ध को अपने ही पुत्र की बलि देनी पड़ी महाराज का गला अवरुद्ध हो गया.
मै भी महाराज, आपसे दया नही, न्याय की ही आशा कर रही हूं. उसके नेत्रों मे ज्वाला धधक रही थी. मुझे युवराज का अपराध तो बताया जाए
उसके ऊपर ब्रह्म हत्या का भयंकर पाप करने का आरोप था पुत्री. स्वंय महर्षि अगस्तय इस अपराघ का न्याय मांगने आए हैं.
जहां तक मुझे सूचना है, ऋषिवर, वह मुनि स्वंयं अपनी ही त्रुटि से आश्रम की सीमा के बाहर आकर ऐसे स्थान पर सन्धया कर्म कर रहे थे जहां युवराज को मृगया मे अपने आखेट के अवसर उनके होने की कल्पना भी नही होसकती थी. मृग पर लक्ष्य कर चलाया गया तीर लक्ष्यहीन हो, यदि मुनि की मृत्यु  का कारण हुआ तो यह युवराज का अपराध न हो स्वंयं मुनि व्दारा आत्महत्या करने का अपराध है.
ब्रह्महत्या तो निकृष्टतम पाप है पुत्री महर्षि अगस्तय ने निर्विकार रूप मे उत्तर दिया. चाहे त्रुटि किसी की भी हो, जाने या अनजाने ब्रह्महत्या तो युवराज द्वारा ही हुई है और इस पाप का एकमात्र प्रायश्चित मृत्युदंड ही है।
किसी अन्य के अपराध का दंड किसी अन्य को दिया जाय, यह और कुछ भी हो न्याय तो नही है महर्षि, चाहे उसे किसी भी आवरण से ढक कर क्यों न प्रस्तुत किया जाए.
 अच्छा गुरुवर, एक प्रश्न का उत्तर तो निश्पक्ष होकर दें. तारिका ने कुछ रुककर पूछां यदि ब्राह्मण मुनि के स्थान पर किसी अन्य वर्ण का व्यक्ति होता तो भी युवराज को यही दंड मिलता? ”
नही नही पुत्री ऐसा कैसे होसकता है? उस अवस्था मे तो युवराज निरपराध मानकर छोड़ दिये जाते. महर्षि ने तनिक मुस्कराते हुए उत्तर दिया.
यह कैसी अंध न्याय व्यवस्था है महाराज आपके राज्य में, और महर्षि आपके समाज मे, कि एक ही दुर्घटना पर दंड उसके कारण पर निर्भर न हो, व्यक्ति के वर्ण अथवा रंग पर निर्भरित है?, एक ब्राह्मण की मृत्यु प्राणदंड के योग्य है, वही किसी भी अन्य वर्ण की, उन्ही परिस्थितियों मे, कोइ अपराध ही नही है, यह मर्यादा तो न्याय नही घोर अन्यायहै. स्तब्ध सभा को संबोधित करती हुई तारिका बोली.
ब्राह्मण तो समाज का ज्ञानदाता व देश का दिशा निर्देशक होता है, उनका तो विशेष महत्व है तारिका पुत्री महर्षि ने बड़ी शांति से समझाते हुए कहा.
और क्षत्रिय रक्षा का, वैश्य व्यापार व राजस्व का, एवं शूद्र स्वास्थय, स्वच्छता व कृषी कर्म के उत्तर दायित्व को वहन करता है सभी महत्वपूर्ण हैं अपनीअपनी जगह. आपके तर्क के अनुसार  समाज, राष्ट्र व देश के लिये सबसे महत्वपूर्ण तो शूद्रवर्ण सिद्ध हुआ महर्षि जो सबकी शुद्धता एवं स्वास्थय की रक्षा करता है, वह तो ब्राह्मण वर्ण से भी अधिक आवश्यक व महत्वपूर्ण सिद्ध हुआ. तारिका विद्रूप व्यंग से हंस पड़ी ऐसी परिभाषा तो स्वंम ब्रह्मा ने भी वर्णव्यवस्था स्थापित करते हुए नही सोंची होगी. आज आप ऋषि-मुनि गण वर्णभेद के आधार पर समाज का जो विभाजन कर रहे हैं,  वह कितना सत्य व न्याय पर आधारित है?
धर्म, कर्म और न्याय की परिभाषा एवं व्याख्या के लिये ज्ञान एवं बुद्धि की आवश्यकता होती है तारिका महर्षि तनिक क्रोघ से बोले और इसमे जाने-अनजाने मे भी हुई तनिक सी गलती से समाज की अत्यधिक हानि हो सकती है, इसी कारण न्याय संहिता मे ब्रह्म हत्या का दंड मृत्यु ही निर्धारित किया गया है. न्यायसंहिता की व्याख्या मे नारी का हस्तक्षेप वर्जित है, अतएव तुम्हारे समस्त तर्क अर्थहीन हैं तारिका. तुम्हारा इस समय राजप्रासाद लौटजाना ही उचित व श्रेयकर है.
और सौभाग्य विहीन विधवा के समान, अपना बचा हुआ जीवन ऋषि-मुनियो व परिवार की व वृद्ध परिजनो की सेवा मे आहुति कर देना भी आपके द्वारा लिखित इस आचार संहिता के अनुसार श्रेयतम व श्रेष्ठतम है. क्यो न महर्षि ? ” तारिका का सारा शरीर क्रोध से कांप रह था.
अच्छा महर्षि यदि आप इसी संहिता पर आधारित तर्को की सहायता से ब्राह्मणों की महत्वपूर्णता और गुणो की स्थापना करने की चेष्टा कर रहे हैं, तो एक प्रश्न का उत्तर दीजिये. क्या इन्ही आचार संहिताओं के अनुसार ब्राह्मण का कर्तव्य क्षमा करना नही होता?, दया करना नही होता? ”       
अवश्य होता है महर्षि ने उत्तर दिया, “पर इस समय इस प्रश्न का, इस शंका का क्या औचित्य है?”
क्योंकि इस न्याय के आधार पर आप, महर्षि, ब्राह्मण नही हैं और न यहां उपस्थित अन्य ऋषि-मुनिगण भी ब्राह्मण हैं. आप सबमे दया- क्षमा का पूर्णतः अभाव है. यदि कोई अकारण प्रहार करे तो वह बड़ा अपराधी है, किन्तु यदि बदले की भावना से हत्या करता है तो यह अत्यन्त जघन्य अपराध है. आप सब यह भलिभांति जानते थे कि युवराज अग्निदत्त निरपराध हैं, वास्तविक अपराध तो उस मुनि युवक का था जो आपकी प्रतारणा से भयभीत हो, निषिद्ध स्थान पर संध्या कर रहा था। मात्र प्रतिशोध ले सकने के उद्देष्य से आप सब, अपने इस तथाकथित एवं स्वरचित न्याय व आचार संहिता के आधार पर इस न्याय प्रक्रिया का नाटक कर रहे थे। आपने महाराज से उनका एकमात्र पुत्र, साम्राज्य से एकमात्र उत्तराधिकारी एवं एक नवविवाहिता से उसका युवक पति, मात्र अपने प्रतिशोध की ज्वाला शांत करने के लिये, छीन लिया।
तारिका की वाणी आज उसके वश मे नही थी. 
यदि आपके स्थान पर कोई अन्य साधारण जन अपनी भावनाओं पर नियंत्रण न रख सकने पर इस प्रकार का व्यवहार करता तो शायद वह क्षम्य होता, किंतु आप तो महर्षि कहलाते है, जो स्वाभावतः दयावान कोमल हृदय व क्षमाशील होने चाहियें, फिर महर्षि अगस्तय, आप तो सब महर्षियों मे भी श्रेष्ठतम कहलाये जाते हैं, आपको तो असाधारण रूप से क्षमाशील होना चाहिये, किंतु आप आज एक नवयुवक द्वारा अन्जाने मे होगये अपराध को क्षमा नही कर पाए, उसके भविष्य के लिये आपके हृदय मे रंचमात्र भी दया नही उपजी.
उसके हृदय मे ज्वाला धधक रही थी. वाणी अनवरत उफनती हुई नदी की भांति तट की सभी सीमाएं लांघ रही थी.
 अपराध, जो वास्तव मे अपराध है ही नही, और जिसके लिये वह उत्तरदायी भी नही है, उस के लिये आपने एक कोमल मुख व निर्मल हृदय वाले नवयुवक, जिसने अभी यौवन सुख ठीक से चखा भी नही था, मृत्युदंड मात्र निर्धारित ही नही किया, परन्तु इतनी शीघ्रता से क्रियान्वित भी कर दिया. क्या आपको भय था कि कहीं विलम्ब से महाराज के हृदय मे पुत्र प्रेम जाग्रत न होजाए?  कही उनकी न्यायप्रियता न सजग हो जाय? कहीं किसी भूलवश आपके पाषाण हृदय मे ही मानवीय संवेदना प्रबल न हो जाय?”
आपको उसकी नवविवाहित कली, जो अभी पूरी खिली भी नही थी, संसार के इस उपवन मे जिसने अपना अवगुंठन उठाया भी नही था, उसे मसल डालते समय भी आपमे करुणा नहीं उपजी? इस प्राणदंड से उसके वृद्ध माता-पिता पर क्या गुज़रेगी? इस महान साम्राज्य को, जिसने आपको और इन समस्त ऋषि मुनियों को संरक्षण प्रदान कर अपने धर्मपालन की, यज्ञक्रिया निर्विघ्न समंपन्न कर सकने का अभयदान दिया, उसके एकमात्र उत्तराधिकारी से वंचित करते समय आपकी अंतर्आत्मा ने आपको नही धिक्कारा?”
तारिका का क्रोध सारी सीमाओं को लांघ चुका था. आनन रक्तिम हो गया था, भावावेश मे जिव्हा कांप रही थी  इस प्रतिशोध की आग मे महर्षि आप ब्राह्मण न रह कर उसके वेश मे राक्षस बन गये हैं. आपका ऋषित्व, आपका मुनित्व संसार को धोके मे डालने वाला बन गया है. आपके इस भस्मलिपित शरीर के भीतर जो हृदय स्पन्दन कर रहा है, वह पाखंडी, क्रूर एवं सामान्य जन से भी बहुत नीचे गिर चुका है.- - - - - -  
तारिका क्रोध मे महर्षि का और अधिक अपमान न कर बैठे, इस भय से महाराज ने बीच मे ही उसको टोकते हुए रोका.  पुत्री तारिका तुम शोक के आवेश मे महर्षि का अपमान कर रही हो. तुम्हे शीघ्र ही यज्ञस्थली से चले जीना चाहिये.
पूरे विश्व मे एक न्यायप्रिय शासक के रूप मे विख्यात महाराज, आपने आज मेरे सौभाग्य के साथ अन्याय किया है, शायद महर्षि के क्रोध से भयभीत होकर. पर महाराज जिस महर्षि ने अपना ऋषित्व त्याग आपको इस वीभस्त अन्यायपूर्ण दंड देने के लिये विवश किया है, जिसने मेरे नये संसार को नष्ट किया है, उसका अपमान तो बहुत ही छोटी बात है पिताश्री, मै उनसे भयंकरतम प्रतिशोध लेने की प्रतिज्ञा करती हूं
महर्षि कुछ बोले उससे पूर्व ही महाराज ने तीव्र स्वर मे आज्ञा दी. बहुत बोल चुकीं तारिका, तुम समाज की मान्य व स्थापित मर्यादा का उल्लघन कर रही हो. मेरी आज्ञा है कि इसी समय राजप्रासाद वापस जाओ
मै किसी भी अन्याय पर आधारित मर्यादा या आज्ञा मानने के लिये बाध्य नही हूं पिताश्री. इस कायर समाज, राज्य या परिवार से मै अपने सभी संबंध इसी समय समाप्त करने की घोषणा करती हूं, आज से ही नही इसी क्षण से. मै अपना प्रतिशोध अवश्य लूंगी पिताश्री, इस ऋषि समाज द्वारा निर्धारित झूठी मर्यादा व्यवस्था से, इन पाखंडी ब्राह्मण समुदाय व्दारा मानव -मानव के बीच खींची गयी इस कृतिम वर्ण व्यवस्था से, और यदि आपने बीच मे आने काप्रयत्न किया तो आपसे भी टक्कर लेने मे मुझे कुछ भी संकोच नही होगा. मै, यक्ष राजकुमारी इस सभा को साक्षी बना कर यह प्रण करती हूं
सारी स्तब्ध सभा को प्रणाम कर व महाराज के चरण स्पर्ष कर वह विद्युत वेग से यज्ञस्थली से प्रस्थान कर जाती है. पीछे पीछे छाया की भांति खड़ग उठाऐ हुए रजनी भी चली जाती है. सब चित्र लिखित से रह जाते हैं।


           
















तृतीय द्रष्य

अब हमने वन की उस सीमा मे प्रवेश कर लिया है राम, जिसमे राक्षस राज रावण ने अपनी अग्रिम चौकी स्थापित कर रखी है. इसकी क्षेत्रप दस्यु सुन्दरी ताड़का का पूरे क्षेत्र पर ही नहीं, दूर दूर तक भयंकर आतंक व्याप्त है. राक्षसराज ने देवराज इन्द्र को पराजित पूरे विश्व पर अपना प्रभुत्व स्थापित कर लिया है. कोई भी राजा खुले रूप से उसके किसी भी क्षेत्राधिकारी के विरोध का या अवमानना का साहस नहीं कर सकता
घनी दाढ़ी- मूंछ और जटाओं से सज्जित उनके गौरवर्ण  दीप्तिमान चेहरे पर घबराहट छायी हुई थी. तारिका का उल्लेख करते ही वे किंचित काँप उठे. एक समय स्वंयं वषिष्ठ की विशाल सेना से लोहा लेकर पराजित करने वाले ब्रह्मर्षि विश्वामित्र भी भयभीत से लगे.
तारिका ने क्रांति सी कर दी थी. महर्षि अगस्तय का आश्रम तहस नहस कर दिया था और उन्होने अपने शिष्यों के साथ विन्ध्याचल पार कर दक्षिण मे अपना नया आश्रम स्थापित कर लिया था. फिर भी वह हमेशा किसी भी आक्समिक आक्रमण का सामना करने के लिये तत्पर रहते थे. क्या पता, तारिका अपने दल के साथ यहां भी आपहुंचे, या रावण के अन्य क्षेत्रप तारिका की मांग पर उनके आश्रम के उपर चढ़ाई कर बैठे?
आश्चर्यचकित करने वाली थी उसकी संगठन शक्ति. वर्णभेद से प्रताड़ित शूद्र व अन्य वर्णों के युवको की विशाल सेना बना ली थी जिसे म रिचि व सुबाहु जैसे दलपतियों का नैतृत्व प्राप्त था. रजनी के समान विलक्षण बुद्धि वाली व्यूह रचना मे निपुण, प्रतिभाशाली प्राणप्रिय सहेली थी उसके पास. जिस और यह सैन्यदल निकल जाता था योजनो तक वह क्षेत्र निर्जन होजाता था. ऋषियों के आश्रमों मे विनाश व विध्वंसों का तांडव होने लगता था. पूरे क्षेत्र मे यज्ञ वर्जित था. यदि कोई साहस कर छोटे से भी यज्ञ करने का प्रयास करता था तो उसका विनाश निश्चित था. बेचारे अगस्तय मुनि जान बचाकर सुदूर दक्षिण पलायन कर गये थे. किसी भी ऋषि के नाम से ही तारिका को अपूर्व क्रोध आजाता था, जिसे मात्र रजनी ही शांत कर पाती थी।
 ब्रह्मऋषि विश्वामित्र शंकित अवश्य थे, पर आर्यावृत मे ऱघुनन्दन दशरथ ही एकमात्र ऐसे राजा थे जिन्होने देवासुर संग्राम मे इन्द्र का साथ दिया था. उनका शौर्य और वीरता, एवं कैकयराज की वीरपुत्री महारानी कैकयी की बुद्धिमत्ता पर विश्वास था. रक्ष संस्कृति के विरुद्ध आयोजित उनके इस धर्मयुद्ध मे महारानी कैकयी उनके साथ थीं. दशरथ स्वंयं वृद्ध होचुके थे.अन्य किसी भी राजा मे न तो इतनी क्षमता थी, न साहस, कि निरंतर फैलती जारही रक्ष संस्कृति और पार्शव से सहायता करते हुए रावण के दलपतियों की सेना रोक सके. पूरे आर्यावर्त मे रक्ष संस्कृति तूफान सी फैलती जारही थी. कभी वषिष्ठ की कट्टरपंथिता कर्मकाडं एवं वर्ण व्यवस्था के घोर विरोधी विश्वामित्र रक्ष संस्कृति के विरुद्ध संग्राम मे उनका सक्रिय सहयोग करने को तत्पर हो गये थे. आर्य धर्म को रक्ष संस्कृति से बचा सकने का यह अंतिम व एकमात्र अवसर था.  महर्षि वशिष्ठ ने दशरथ के चारों पुत्रों को शिक्षा दी थी. सभी विलक्षण वीर और प्रतिभाशाली थे. पर उन्हे राम के नैतृत्व व संघटन शक्ति पर अधिक विश्वास था.
दशरथ से राम को, कैकयी के, सहयोग से मांगते समय प्रेमवश लक्षमण के हठ के कारण आज वह दोनो राजपुत्रों सहित अपने आश्रम लौट रहे थे. योजना को गुप्त रखने के प्रयोजन से बिना किसी सैन्य सहायता के ही इस पथ पर निकल पड़े थे. मात्र उनके वशिष्ठ व कैकयी के किसी को भी इस योजना की भनक तक न थी. ताड़का का गुप्तचर यंत्र इतना सशक्त था कि आर्यावर्त की हर सूचना उस तक शीघ्र पहुंच जाती थी. इस तंत्र की स्थापना, नैतृत्व व संचालन रजनी के पास था, जिसे भेद पाना लगभग असम्भव था. जहां भी किसी ऋषि के आश्रम की, या यज्ञ संचालन की सूचना मिलती, ताड़का विद्युतवेग से टूट पड़ती और उसे तहसनहस कर डालती. उसे रोकने का या मारने का जो भी प्रयत्न आर्यावर्त के राजाओं- ऋषियों ने अकेले या सम्मिलित होकर किये, सभी असफल हुए. तारिका, जिसे आर्यगण घृणावश ताड़का के नाम से सम्बोधित करते थे, अभी तक अपराजेय रही थी. आर्यावर्त के समस्त अरण्यों पर उसका व रक्षराज रावण की बहन स्वर्णिका (शूर्पणखा) का एकछत्र साम्राज्य था.
कितनी स्फूर्ति थी तारिका मे, आज यहां तो कल कोसें दूर. कितनी सुद्रढ़ थी रजनी की सूचना प्रणाली, मानोसूंघ कर ही अपने शत्रु का पता लगा लेती है, विश्वामित्र सोंचते आरहे थे कि कहीं उसे उनकी उपस्थिति का पता न चल जाए? अगर ऐसा हो गया तो उनकी योजना आरंभ होने से पहले ही उनके प्राणो की आहुति चढ़ जाएगी. राम और लक्षमण की विलक्षण शक्ति पर उनका विश्वास भी डगमगा रहा था.उनकी शिक्षा अभी पूर्ण नही हुई थी, रक्ष सेना की युद्ध नीति और व्यूह रचना का इन युवा राजकुमारों को कुछ भी ज्ञान नही था . बिना पूर्ण तैयारी के इनका ताड़का से सामना उचित नही होगा. इस मार्ग से अपने आश्रम लोटने के निरणय पर उन्हे अब स्वंम शंका होरही थी, यद्यपि इससे समय मे बहुत बचत होरही थी. शंकित हृदय से भयभीत ऋषि जैसे जैसे आगे बढ़ रहे थे उनके हृदय की धड़कने उतनी ही बढ़ती जारहीं थी. याद है उनको, एक समय इसी प्रकार वह यात्रा कर रहे थे ताड़का से छुपते हुए, ताड़का ने आक्रमण कर दिया था तो यक्षराज ने उन्हे शरण दी थी, फलस्वरूप उसने अपने ही श्वसुर की नगरी का नाम ही मिटा दिया था.  वह निरंतर ऋषियों का, विशेषकर महर्षि अगस्तय का पीछा करती रहती थी और जो भी उनको आश्रय देता था, उनका संपूरण विनाश कर देती थी.
कुछ दिनो पूर्व ही दुर्घटनावश रजनी ताड़का के दल से अलग पड़  अरण्य मे अकेली रह गयी थी. उयी मार्ग से कुछ तरुण मुनिगण जारहेथे, रजनी को अकेली पा उन्होने सम्मलित रूप से उसका बलात्कार कर डाला, और यह घटना उजागर न होजाए इस भय से उसका वध कर शव को वहीं भूमी मे छुपा दिया.  इस घटना का यह प्रभाव हुआ कि जो ताड़का अभीतक महर्षियों की ही शत्रु थी, अब मुनिमात्र से ही धृणा करने लगी थी. किसी जन पर उसे मुनि होने की शंका भी हुइ तो उसका वध निश्चित था. यक्षक्षैत्र व अवध के समीप सभी आश्रमो मे वीरानी छा गयी थी, नरकंकालों का ढेर लग गया था.
सहसा बहुत दूर अंतरिक्ष के पास से धूल का गुबार उठता दिखाई दिया, जो कूछ ही श्रणों मे गहरा गया, साथ ही अश्वों की टाप भी सुनाई देने लगी.
   लगता है ताड़का को हमारे आने की सूचना मिल गयी वत्स, शीघ्र ही वृक्षों की ओट लेकर छुप जाओ. कहते कहते ऋषिवर तुरंत ही सघन वृक्षों के मध्य अद्रष्य हो गये. दोनो राजकुमार समय की आक्समिता से किंकर्तव्यविमूढ़ से खड़े रह गये. हां लक्षमण के अधरों पर रोकते रोकते भी एक हल्कि सी मुस्कान खेलने लगी,
कुछ ही क्षणों मे राम व लक्षमण को चारों ओर से धनुष पर प्रत्यंचा चढ़ाऐ तीर ताने सैनिक घेरकर खड़े होगए. हाथों मे नग्न खड़ग लिये एक अश्वारोही रूपसी स्त्री संन्मुख आ खड़ी हुई.
तुम लोग कौन हो सुकुमार युवकों? यहां घोर अरण्य मे क्या कर रहे हो? क्या आखेट के समय मृग का पीछा करते करते मार्ग भूल इस अरण्य से निकलने का पथ खोज रहे हो? ”
मै अवध के महाराज दशरथ का पुत्र राम हूं और यह मेरा अनुज सुमित्रा नंदन लक्षमण है देवी,” राम ने झुक कर प्रणाम कर उत्तर दिया. कृपया अपना परिचय दें देवी, इस घने अरण्य मे इस संध्याकाल में, जब रात्रि आरंभ होने वाली है, आप किस कारणवश विचरण कर रही हैं? हम आपकी किसी प्रकार सहायता कर सकते हैं यह आदेश देने मे संकोच नही करियेगा”
बहुत विनयशील हो राम. आर्यों मे अभी भी तुम जैसे लुशील और सुसंकृत युवक हैं यह देख आश्चर्यजनित प्रसन्नता हुई. क्या तुम्हे किसी ने बताया नही कि इस सीमा मे मेरी, पूर्व यक्ष राजकुमारी एवं वर्तमान मे इस अरण्य सीमा की एकछत्र साम्राज्ञी तारिका, जिसे आर्य श्रषी भय व घृणा वश ताड़का कहते हैं, की पूर्व स्वीकृति के प्रवेश वर्जित है.”
अच्छा, तो आप ही वह ताड़का हैं जिससे यह सारा भूखंड कांपता है. मैने तो सोंचा था आप कोई कुरूप सी, वीभत्स सी स्त्री होंगी, पर आश्चर्य आप तो सुनदर रूपसी हैं. ” लक्षमण ने तनिक हास्य से कहा
तारिका खिलखिलाकर हंस पड़ी. तो तुम्हारे मुनियों ने मेरा नाम ही नही मेरी छवि को भी इतना विकृत कर रखा है? तब तो तुमने मेरे आत्याचारों की भी कई काल्पनिक कथाऐं गढ़ रखी होंगी. तुमने अवश्य वह कहानियां सुनी होंगी, क्यो लक्षमण?
 और क्या क्या बतायाउस विश्वामित्र ने तुम्हे?” तारिका ने सहास्य पूंछा, वही तो लाया है तम लोगों को. वह और वशिष्ठ मिल कर मुझे समाप्त करने की योजना बना रह हैं”.
आप कैसे जानती है देवी कि ब्रह्मर्षि विश्वामित्र हमारे साथ हैं? और आपको कैसे लगा कि वह एक योजना बनाकर आपका विनाश करने का सोंच रहे हैं?”  राम आश्चर्य से प्रश्न किया.
 वह स्वंम चकित थे कि महर्षि ने पिताश्री से किस प्रयोजन से उनको मांगा था, और गुरू वशिष्ठ ने महाराज पर इतना अधिक दबाव क्यों डाला था? कुछ न कुछ बात तो है इन सब घटनाओं के पीछे, जो उनको समझ मे नहीं आयीं थी, और उनशंकाओं का समाधान मांगने का साहस वह जुटा नही पाए थे.
फिर तो उन्होने यह भी नही बताया होगा कि मैने यक्ष संस्कृति त्याग कर रक्ष संस्कृति को क्यो अपनाया? अपने पूर्वज महाराज कुबेर की आर्य व देव परंपरा निभाने वाले कुल को छोड़ कर रक्षराज रावण से संधि क्यों की? उसका क्षेत्रप बनने का संकल्प क्यों लिया?.
ब्रह्मर्षि विश्वामित्र ने पूरी गाथा बताई है देवी बड़ी विस्तारपूर्वक, किस प्रकार आपने रक्षराज के निर्देशानुसार अधिकतम यज्ञों का विनाश किया है, किस प्रकार उन्हे पूर्ण करने के हर प्रयास को असफल किया है, अगस्तय मुनि के आश्रम को तो आपने पूरा अरण्य ही बना दिया है, आर्यावृत के समस्त ऋषी व मुनि गण तारिका के नाम से ही कांपते हैं”. राम ने शांत स्वर मे कहा लेकिन  आप तो बहुत ही शांत और शालीन लगती हैं, लगता नही कि आपसे कभी कोई अन्याय या आत्याचार होसकता है. क्या ब्रह्मर्षि विश्वामित्र और महर्षि वशिष्ठ भी इतना मिथ्या कथन कर सकते हैं? विश्वास नही होता”.
तारिका मुक्त कंठ से खिलखिला कर हंस पड़ी, नहीं राम, जो भी मुनिगण कह रहें हैं वह अक्षरक्षः सत्य है. मैने ही अगस्तय के आश्रम को वीरान खंडहर बनाया है,व  उसको विध्याचल पर्वत पार कर सुदूर दक्षिण मे आश्रय लेने को विवश किया है. मैने ही इस भूखंड मे यज्ञों का विध्वंस किया है.प्रण किया है कि जहां भी किसी भी यज्ञ की सूचना मिलेगी मै स्वंम जाकर उसे खंडित करूंगी. मुझे आर्यों के इस पाखंडपूर्ण आयोजनो से घृणा है. इस पाखंड ने कितना अन्याय किया है, कितने मासूम जीवनों का अंत किया है तुम उसका अनुमान भी नही लगा सकते”.
राम और लक्षमण आश्चर्य से चित्रलिखित से खड़े रह गये. उन्हे शंकाओं ने घेर लिया. क्या अब तक जो उन्हे बताया गया है, वह भी इतने ज्ञानी, तपस्वी व पूज्यनीय गुरूजनो से, वह सब मिथ्या है? क्या यह योद्धा युवती सत्य कह रही है? इतने विद्वान ऋषि झूठ क्यों बोलेंगे? क्या बाल काल से ही जिन सिद्धान्तो का, जिन मान्यताओं का वह पालन करते आऐं हैं वह अन्याय व झूठ पर आधारित हैं?
राम ने कुछ बोलने के मुख खोला ही था कि तारिका बोल पड़ी,
राम इस समय मेरे पास अधिक समय नही है. मै जिय कार्य के लिये आई हूं उसे समाप्त कर लूं, फिर तुम लोगों को अपने शिविर ले चलूंगी, वहां आराम से बैठ कर तुम्हारी हर शंका कासमाधान करूंगी, हर प्रश्न का उत्तर दूंगी. पहले यह बताओ कि वह कौशिक जो तुमहे लेकर आया है, किस दिशा मे भागकर छुप गया है? मुझे उसका वध करना है”.
देवी ब्रह्मर्षि विश्वामित्र कौशिक रघुकुल के पूज्य हैं, उन्हे अवध के सम्राट पिताश्री दशरथ द्वारा अभयदान दिया गया है, इसलिये हमारे जीवित रहते कोई उनको छू भी नही सकता वध तो बहुत दूर की बात है. मेरी आपसे करबद्ध प्रार्थना है कि आप उन्हे प्राणदान दें जिस्से हम सब आराम से बैठकर इस विषय पर चर्चा कर सकें” राम ने बिना किसी क्रोध या उत्तेजना के उत्तर दिया.
वह हसं पड़ी, तुम दोनो कोमल बालक, तुम बचाओगे कौशिक को? तुम्हे अपने धनुष पर ठीक से प्रत्यंचा भी चढ़ा लेते हो कि मुझको, तारिका को रोकोगे? जिसे इस क्षेत्र के अनेक वीर राजाओं की सम्मिलित सेनाऐं भी पराजित नही कर पायीं, उसे तुम सुकुमार बालक वृंद हरा सकोगे? और कौशिक को प्राणदान? यह तो असंभव है. मुझे उससे बहुत आशाएं थी, वह पहला ऋषि था जिसने आर्यों के पाखंड का विरोध किया, यज्ञ मे मानव बलि का निरोध किया, देवसम्राट इन्द्र को चुनोति दी, वर्णव्यव्स्था का निशेध किया, वह भी सामान्य जनो को निराश कर नये संसार की नयी व्यवस्था स्थापित करने का अपना संकल्प मध्य मे ही छोड़ वशिष्ठ से मिल गया. आशा की चिंगारी जगा कर उसे असमय ही बुझा देने का जो पाप उसने किया है, वह वशिष्ठ के अपराध से भी निकृष्ट है. उसका दंड तो मृत्यु के अलावा कुछ भी नही है.।मार्ग दो बालकों ”
राम व लक्षमण अपने अपने धनुषो पर तीर चढ़ा युद्ध के लिये तत्पर हो गये. राम कुछ बोलें उससे पूर्व ही लक्षमण ने चुनोति के स्वर मे उत्तर दिया, मुझे इन तर्कों  के चक्रव्यूह मे नही पड़ना. हमारे रघुकुल की रीत है कि एकबार वचन दे दिया तो प्राण देकर भी उसकी रक्षा करनी है. गुरुवर को पिताश्रि ने अभयदान दिया है, उसकी रक्षा हम दोनो भाई अपने प्राण रहते अवश्य करेंगे. ब्रह्मर्षि को पाने के लिये आपको हमारे शवों के ऊपर से निकलना पड़ेगा”.
तुम, लक्षमण, तुम्हारा तो बालपन ही अभी तक तरुणाई तक मे भी नही बदला है, मान जाओ सुकुमार युवकों, अपनी मृत्यु का आमंत्रण मत करो. बहुत प्रतीक्षा के उपरान्त आज विश्वामित्र को दंड देने का अवसर मिला है, यह व्यर्थ नही जासकता. शीघ्र मार्ग बताओ अन्यथा मरने के लिये तत्पर हो जाओ”
तारिका को अब क्रोध आने लगा था,  उसने चेतावनी के रूप मे खड़ग उठाया ही था कि उसके कुछ सैनिक महर्षि को पकड़े हुए वहां  आगये. तारिका हंस पड़ी,
 लो लक्षमण अब तुम कैसे अपने रघुकुल की रीति निभाओगे? कैसे अपने पिताश्रि के दिये हुए वचन की रक्षा  करोगे ? अब मेरे खड़ग की रक्त प्यास को शांत करने से कैसे रोक सकोगे ? ”  
कहते कहते तारिका मे आगे बढ़ कर खड़ग उठाया ही था कि कब राम ने तूणीर से तीर निकाला, कब कमान पर चढ़ाया, कब संधान किया, कुछ पता नही चला, किंतु तारिका के हाथ से खड़ग जाकर दूर गिर पड़ा. यह सब कुछ पलक झपकते ही होगया. वह आश्चर्य चकित मुग्ध अवस्था मे खड़ी ही रह गयी.
वाह राम वाह! गज़ब का धनुर्विद्या का कौशल है तुम्हारा. आज तुमसे युद्ध करने मे आनन्द आएगा. मुझे चुनोति दे सकने योग्य योद्धा से परिचय प्राप्त कर बहुत प्रसन्ता हुइ. ”

 कहते कहते जब तक वह अपने धनुश पर तीर चढ़ाए, राम और लक्षमण के एक एक तीर से दोनो लैनिक धराशायी हो चुके थे जो महर्षि की बांह पकड़े हुए थे, और वह स्वतंत्र हो चुके थे.
सम्हलो राम कहते हुए तारिका अपने सैनिकों के साथ दोनो राजकुमारों पर टूट पड़ी. घमासान युद्ध प्रारंभ हो गया. तीरों का अंबार सा छागया. विश्वामित्र अवाक से इन युवा राजकुमारें का धनुर्कौशल देख रहे थे. उन्हे लग रहा था कि महर्षि वशिष्ठ और महारानी कैकयी का चुनाव सही सिद्ध हो रहा था. राम अवश्य आर्यावृत से रक्ष संस्कृति का प्रभाव दूर कर सकेंगे. वह स्वंम विलक्षण योद्धा थे, वशिष्ठ
व उनके सहयोगी राजाओं की सेना के साथ अंधपरंपरा के पालन के विरुद्घ उनका संग्राम तो इतिहास के पृष्ठो मे अंकित हो चुका था. पर ऐसा धनुर्संचालन उन्होने अभी तक नही देखा था.

धीरे धीरे ताड़का के सैनिकों की गति भी संख्या के साथ कम होने लगी. अब प्रमुख युद्ध राम और ताड़का के मध्य हो रहा था. रीम का शरीर भी तीरों से छिद गया था. जगह जगह से रक्त की बूंदे चमकर हीं थी. ताड़का का शरीर भी क्षत् विक्षत होचुका था. तभी राम का एक तीर उसके वक्षस्थल मे गहरे घुस गया, रक्त की धारा फूट पड़ी और वह निशक्त हो धरा पर गिर पड़ी. बचे हुए सैनिक जान बचा कर वन मे विलुप्त हो गये.
राम और लक्षमण अपने अपने धनुष धरु पर रख दिये. राम ने घुटनों के बल बैठ कर तारुका का शीतश गोद मे रख लिया बड़े करुण स्वर मे बोले,
  देवी क्षमा क रें, हमारी आपसे कोई शत्रुता नही है, मात्र कर्तहव्य वश यह युद्ध करना पड़ा. मुझे विश्वास है ब्रह्मश्रि की औषधियों से आप शीघ्र यही स्वस्थ हो जाएंगी”.
तुम बहुत भोले हो राम, जिसके वध के लिये इन लोगों ने जितना षड़यंत्र किया है, इतनी योजनाएं बनाइ हैं, उस तारिका को यह मुनि औषधि देगा, उसको स्वस्थ करने की कामना करेगा, यह तुम सोंच भी कैसे सकते हो पुत्र?
 तारिका ने बड़े कष्ट से कराहते हुए कहा. लक्षमण व्दारा घाव की सफाइ कर रक्त प्रवाह को रोकने के लिये कस कर बांधे गयी पट्टिका के बाद भी वह समुचित रूप से बंद नही हो रहा था. वस्त्र पट्टिका लाल होती जा रही थी.
अच्छा राम, अपने इस गुरूवर से ही पूंछो क्या वह मेरा उपचार करेगा?
 उसने तीव्र वेदना के उपरान्त भी तनिक परिहास से कहा. किसी के कुछ कहने के पूर्व ही विश्वामित्र बोल पड़े
  अवश्य पुत्री। मै तुम्हारा उपचार अवश्य करूंगा यदि तुम अपनी यह यज्ञविरोधी, आर्य संस्कृति को नष्ट करने व उसको रक्ष संस्कृति मे परिवर्तित करने की अपनी प्रतिज्ञा का परित्याग कर दो. हमारी तुमसे कोइ व्यक्तिगत शत्रुता नही है.”
किस संस्कृति की बात कर रहे हो कौशिक, जो बिना किसी अपराध के एक नवविवाहित युवक को ब्रह्महत्या के मिथ्या आरोप मे मृत्युदंड घोशित कर दे, उस हत्या के आरोप मे, जो उसने की ही नही, बलकि उस मुनी की अपनी लापरवाही के कारण हुई थी, एक नवयुवति के विवाह कंगन खुलने से पूर्व ही उसे विधवा होने का श्राप देदिया. उसके पति की उस घृणित यज्ञ मे नरबलि दे दी गयी. अगर यह आरोप उस अगस्तय के स्थान पर किसी अन्य सामान्यजन ने लगाया होता तो भी क्या तब भी इतनी शीघ्रता से न्याय परिणाम की घोशणा हो जाती? क्या इतनी तीव्रगति से उस घोषणा का उसी संध्या, बिना अपनी नवविवाहिता से मिले, उस अधर्म यज्ञ मे नरबलि के रूप मे, पालन भी हो जाता?
तारिका को अब बोलने मे भी कष्ट होने लगा था, सासं फूलने लगी थी. महर्षि ने बिना अधिक विलम्ब किये जल्दी से अपने वस्त्रों मे से निकाल कर एक चूर्ण लक्षमण को उसे पिलाने को दिया और स्वम कुछ जड़ी बूटियों को पीस कर लेप बनाने मे लग गये.
अब बहुत देर हो चुकी है कौशिक, मेरा अंत समय आ चुका है. वह देखो पित्रगण मेरा स्वागत करने आकाश मे एकत्रित होने लगे है कुछ बोलने मेभी कष्ट होरहा है, पर मृत्युपूर्व मेरी एक शंका का समाधान करदो, तुम तो इन संकीर्ण मान्यताओं को नही मानते, तुमने तो पुरातन काल से चली आरही यज्ञ मे नरबलि प्रथा का निरोध कर शुनःक्षेप की प्राण रक्षा की थी, त्रिशंकु को सदेह स्वर्ग भेजने का आयोजन किया था और इन तथाकथित महर्षियों ओर महामुनियों के विरोध पर एक नयी स्रष्टि की सरंचना करने व सर्वथा नवीन समाज व्यवस्था के सृजन की कल्पना की थी, तुम कैसे इस सड़ी हुई व्यवस्था के षड़यंत्र मे सम्मलित हो गये?
मै तुम्हे मरने नही दूंगा तारिका, मेरे कारण ही तुम इस अवस्थामतक पहुंची हो तो मै यम से युद्ध कर तुम्हे जीत लाउंगा, विश्वास रखो” उसके घावों पर लेप लगाते हुए महर्षि बोले, मुझे सत्य मे यह सब कुछ ज्ञात नही था. कुछ उड़ती उड़ती सी सूचना अवश्य मिली थी अपवाद के रूप मे, पर सभी इन सूचनाओं को मिथ्या मानते थे. आज तुम्हारे मुख से यह सब जानकर बगुत पश्चाताप हो रहा है. पहले तुम्हे स्वस्थ कर दूं तब आराम से बैठ कर इस विषय पर पूर्ण चर्चा करेंगे. पर पुत्री तुम्हारे नाम से इन रक्ष जनो ने सामान्य जनो पर बहुत आत्याचार कियें हैं और रक्ष संस्कृति की ओट मेरक्ष जनों व स्वम रक्षराज रावण ने कितनी हत्याऐं की हैं, इसका तुमहे भी ज्ञान नही है।”
तारिका की आवाज डूबने लगी थी, सांस लेने मे भी बहुत कष्ट होरहा था फिर भी उसके अधरों पर मुस्कान कौंध गयी.
अब विस्तृत चर्चा तो अगले जन्म मे ही होगी, पर मुझे संतोष है कि किसी ऋषि ने मेरी बात सुनी व उस पर विश्वास किया. मुझे प्रसन्नता है कि मेरा अंत इन निर्मल सुकुमारों के हाथों होरहा है, किसी वृद्ध, कुरूप, झाडियों जैसी जटा-दाढ़ी धारी के हाथों नही”
राम  और लक्षमण की आंखोंसे अविकल अश्रुधारा बह रही थी, स्वम विश्वामित्र की आखें नम हो गयी थीं, गला अवरुद्ध हो रहा था, तभी तारिका ने हिचकी ली और अपने प्राणो का त्याग कर दिया। सभी शोकाकुल हो उठे. कुछ समय अपने उपर नियंत्रण प्राप्त कर महर्षि ने राम-लक्षमण को तारिका के अंतिम संस्कार की तैयारी प्रारंभ करने का आदेश दिया. कुछ ही देर मे तारिका का पुत्रवत सैनिक मारिची अन्य सैनिकें के साथ प्रगट होकर इय अंतिम क्रिया की तैयारी मे साथ देने लगा. बड़ी शांति से सौहार्दपूर्ण वातावरण मे चिता बनाई गयी और महर्षि के मंत्राचारो मे मारिची ने चिता को अग्नि दी. कुछ ही समय मे चिता ने शव को राख मे परिवर्तित कर दिया और आत्मा अनंन्त मे विलीन हो गयी.
राम-लक्षमण और महर्षि के सामने तारिका अनेक अनसुलझे प्रश्न छोड़ गयी. आज तक हम आर्यसंस्कृति को धर्म का आवरण पहनाने वाले हिंदू इन प्रश्नो का उत्तर ढूंड रहे हैं.


 आलेख भेजने के लिए धन्यवाद. मैंने रुचिपूर्वक पढ़ा ,कथा किसी गूढ़ घटना-क्रम का आभास दे रही है. उन ग्रंथों के रचयिताओं ने अपने चरितनायक और अपनी संस्कृति की श्रे्ष्ठता सिद्ध करने के लिए प्रतियोगी संस्कृतियों पर बहुत कीचड़ उछाली है. ताटिका की कथा का उल्लेख मैंने भी किया है-
 "जो तप से प्राप्त ब्रह्म के वर का फल थी,
तुम भूल गये क्या वही ताटिका यक्षिणि,
पहले तो पति के प्राण लिये ऋषियों ने
फिर दे दे शाप बना डाला नर-भक्षिणि! "
उत्तर-कथा सर्ग-8,प्रश्न )
एक बात जानना चाहती हूँ यह किन्हीं ज्ञात तथ्यों पर आधारित है या सुनी-सुनाई पर आश्रित ?
प्राचीन साहित्य के गहन अरण्य में ऐसी उलझी हुई कथायें आज भी न्याय माँग रही हैं.
आपने पढ़ने का अवसर दिया,अच्छा लगा  - आभार !
हमलोग भलीभाँति हैं .
शुभ कामनाओं सहित,
प्रतिभा सक्सेना.